Wednesday, December 19, 2012

त्यौहार


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मैं गरीब भी सँभालता
एक ख़ास वसन को
जो बहुत भाता मन को
हम मिले थे
संग चले थे
कुछ देर
कुछ दूर
जिसे पहनकर
किसी दिवस
किसी बरस
आज साथ नहीं हो
इस बरस
अब साथ नहीं होगी
किसी बरस

मैं पहनता हूँ
उस दिवस
हर बरस
उसी वस्त्र को
और महसूसता हूँ
तुम्हारी ऊष्मा
तुम्हारी गन्ध
तुम्हारा स्पर्श
जो दिया था तुमने
मेरे वसन को
मेरे तन को
मेरे मन को
और हो जाता है वह दिन
एक पर्व पवित्र –सा

फिर रख देता सँभालकर
उस वस्त्र को
अगले त्यौहार के लिए
सच
तेरे प्यार के लिए
.........

...... क्रमशः ....






प्रस्तुत पद्य - खंड मेरी प्रकाशाधीन पुस्तक ----'' स्पर्श ''------( प्रेम को समर्पित : एक प्रयास ) ..की एक लम्बी कविता से उद्धृत है ..... पूरी कविता पुस्तक में लेकर आऊँगा ..
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