Sunday, December 9, 2012

अदृश्य-रेखा





ज़िन्दगी में
तुम से दूर रहते-रहते
दूर रहने की आदत-सी पड़ गई
अब तो ख़्वाबों में भी दूर-दूर ही रहता
तेरे पास आने से घबराता
शायद मेरे सपने
घिरे हुए हैं

उन अदृश्य रेखाओं से
हमने जो खींची थीं कभी
जिन्हें पार करने का साहस नहीं कर पाता
शायद मैं कमज़ोर हूँ
या ये रेखाएँ मुझसे मज़बूत

पर तुम इतने कमज़ोर नहीं
तुम तो शक्ति की अधिष्टात्री हो
इतनी शक्ति है तेरे पास
कि रच सकती हो मानव को
रच देती हो मानव को
थोड़ा साहस थोड़ी ऊर्जा
दिखाओ तुम इन रेखाओं के सम्मुख ..


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प्रस्तुत पद्य - खंड मेरी प्रकाशाधीन पुस्तक ----'' स्पर्श ''------( प्रेम को समर्पित : एक प्रयास ) ..की एक लम्बी कविता से उद्धृत है ..... पूरी कविता पुस्तक में लेकर आऊँगा......

  December 6, 2012 at 5:57pm on Facebook


 


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